Monday 20 April 2015


समय तेजी से निकलता है। २००८ से २०१५ हो गए और मध्य प्रदेश गवर्नमेंट ने इतने सालों के बाद अंततः मीडिया अवार्ड्स का ऐलान कर ही दिया। न सिर्फ ऐलान बल्कि अवार्ड्स के दो समारोह भी आयोजित कर दिए तथा सम्मानित पत्रकार बंधुओं को सम्मानित भी कर दिया. पर जहाँ बुद्धिजीवी हों वहां मतभेद न हो हो ही नहीं सकता। अतः अवार्ड्स पर विवाद अवश्यम्भावी था।  मेरे एक मित्र ने मुझे फ़ोन किया और विवाद पर मेरा विचार जानना चाहा।  मैंने कहा कि सबसे पहले हमे अवार्ड मिलने वाले मित्रों को बधाई देना चाहिए. जूरी के फैसले का सम्मान करना चाहिए. सम्मान देना तथा सम्मान प्राप्त करना दो पक्षों के बीच की बात है. एक पक्ष ने सम्मान देने के लिए कुछ पैरामीटर्स बनाये हैं तथा सम्मान प्राप्त करने वाला उस पैरामीटर्स पर खरा उतरता है. अतः इसमें विवाद कहाँ है? दूसरी बात ये है की अगर हम ये विचार करें की एक पत्रकार को जानने वाले मध्य प्रदेश में और उससे बाहर ५००० लोग हैं।  तो सम्मान प्राप्त करने के बाद हो सकता है की उसको जानने वालों की संख्या कुछ बढ़ जाए या हो सकता है दुगुनी हो जाए।  पर जिसे सम्मान नहीं मिलता है उसको जानने वालों की संख्या ५००० तो रहेगी। वह ४९९९ तो नहीं होगी. मैं ये भी मानता हूँ कि अगर एक पत्रकार की पहचान सिर्फ किसी एक अवार्ड से है तो फिर उसने अपने आपको पत्रकार कहलाने का हक़ खो दिया. फिर हमारा अवार्ड हमारा अपना काम है. अगर हम अपनी लेखनी से कुछ लोगों का भला करते हैं, कुछ की परेशानिया दूर करते हैं तो ये सबसे बड़ा अवार्ड है.
खैर इन पुरस्कारों का निहितार्थ चाहे जो कुछ भी हो और विवाद चाहे कुछ भी हो एक अच्छी बात ये हुई है की कम से कम सरकार ने एक नयी व्यवस्था तो शुरू की जिससे पत्रकार बिरादरी का सम्मान तो बढ़ा है. मेरे नज़र में ऐसे कई पत्रकार हैं जो सम्मान के हक़दार थे पर मुझे लगता है की उनका कद इतना ऊँचा है की वे सम्मान के दरकार नहीं हैं. ऐसे बहुत से नाम हैं जिनको मैंने पत्रकारिता के शीर्ष पर देखा है जब मैं भोपाल आया और उनमे से कई आज भी एक्टिव जर्नलिज्म में हैं. अगर वो सम्मानित लोगों के सूची में होते तो और भी अच्छा होता। कुछ गड़बड़ियां भी हुईं जैसे कि मैं अपने मित्र सतीश एलिया जी और प्रभु पटेरिया जी को आंचलिक पत्रकार की सीमा में नहीं बांध सकता।  राजेश सिरोठिया जी को प्रादेशिक पत्रकार की सीमा में नहीं बाँध सकता। 
पर अगर हम एक समुदाय की भावना से देखें तो अपनी बिरादरी के कुछ लोगों के सम्मान से पुरे पत्रकार बिरादरी का सम्मान हुआ है. जैसा की समन्वय भवन में मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा उन्होंने भी खोजी पत्रकारिता की तो पता चला की विवाद टालने के लिए इतने सालों से अवार्ड नहीं दिए जा रहे थे। अतः इतने बड़े आयोजन में सब कुछ शत प्रतिशत सही होगा ऐसा संभव नहीं है.  अंततः एक नयी शुरुआत और सभी मित्रो को बधाई। sunday को सम्मानित लोगों में मेरे मित्र मनीष dixit जो की हमारे साथ कई वर्ष hindustan टाइम्स में काम कर चुके हैँ तथा नितेन्द्र शर्मा भी थे अतः मेरे लिए ये आयोजन और भी ख़ुशी देने वाला था। 
पर कहानी में एक ट्विस्ट भी है। वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा के एक कमेंट ने राष्टीय पुरुस्कारों के समारोह में मुख्यमंत्री के मन में एक खटास पैदा कर दी। अपने भाषण के दौरान मुख्यमंत्री की तरफ मुड़ते हुए रजत शर्मा ने कहा की जल्द ही उनके कार्यक्रम आपकी अदालत में दिग्विजय सिंह को बुलायेंगे. उनकी बॉडी लैंग्वेज से पता चल गया कि एक शानदार एंकर ने एक भारी चूक कर दी  है. मुख्यमंत्री का चेहरा जो की नामी पत्रकार शेखर गुप्ता के प्रशंसा से दमक रहा था अचानक स्विच ऑफ हो गया और वे असहज दिखने लगे।  आमंत्रित पत्रकारों और अन्य मेहमानो के बीच चर्चा शुरू हो गयी की रजत शर्मा ने वाकई दिग्विजय सिंह का नाम लिया या उन्होंने शिवराज सिंह चौहान के नाम की जगह गलती से दिग्विजय सिंह का नाम ले लिया?  मैं स्वयं दुविधा में था पर मेरे मित्र राकेश अग्निहोत्री और प्रभु पटेरिया दोनों आश्वस्त थे की रजत शर्मा ने गलती कर दी है. और अंततः वही हुआ। अपना स्पीच खत्म करने के बाद  रजत शर्मा डायस पर मुख्यमंत्री की बगल में अपनी जगह पर वापस बैठे और उन्होंने चौहान से कुछ कहा. मुख्यमंत्री ने अपना सर हिलाया।  फिर रजत शर्मा वापस माइक पर आये और उन्होंने सॉरी बोलते हुए ये कहा की उन्होंने एक गलत नाम ले लिया. उन्होंने ये भी कहा कि मंच पर उन्हें ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए थी।  पर डैमेज तो हो चूका था। अंत में जब मुख्यमंत्री का भाषण हुआ तो उसमें लय गायब था और पूरे समारोह में मुख्यमंत्री के वर्तमान में विरोधी नंबर १ दिग्विजय सिंह का नाम वातावरण में आ चुका था।   
अंत में मैं अपने वरिष्ठ और आदरणीय पत्रकार बंधुओं से एक अपील करना चाहूंगा कि वे मानव को मानव रहने दें। चाहें तो उन्हें सुपर मानव बना दें पर उन्हें 'शिव' और भगवान ना बनायें।  और उनके सर के बालों को बाल ही रहने दें, जटा ना  बनायें  नहीं तो उन्हें बालों  में कंघी करने में परेशानी होगी। आखिर मुख्यमंत्री का मत भी तो यही है कि 'महाराज की जय' करने वाले 'राजा' का नुकसान ही करते हैं जबकि निंदक को पास रखने पर फायदा ही होता है। 'पुरस्कार' का नाम 'सम्मान' में बदलना तभी सार्थक होगा, नहीं तो वो वाकई में पंजीरी माना जाएगा.  
इतने अंतराल के बाद ब्लॉंग पर लिखने के लिए मेरे मित्र प्रभु जी को शुक्रिया जिनका ब्लॉग पढ़कर मैं फिर लिखने को प्रेरित हुआ। पहली बार हिंदी में ब्लॉग पर लिखने पर गलतियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।  

2 comments:

  1. शानदार लिखा है। आपकी हिंदी हम जैसे कई हिंदी पत्रकारों से अच्छी है। भावनाओं का आवेग भी अनूठे ढंग से उभरा है।लिखते रहिए....पढ़ने वाले जुड़ते जाएंगे।

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  2. शानदार लिखा है। आपकी हिंदी हम जैसे कई हिंदी पत्रकारों से अच्छी है। भावनाओं का आवेग भी अनूठे ढंग से उभरा है।लिखते रहिए....पढ़ने वाले जुड़ते जाएंगे।

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